Tuesday, May 25, 2010

Sarhad Ki Jung

जब सरहद पे छिड़ती है जंग
हमे हाथों से लड़ना पड़ता है
फासले तो अब ये मिटते नहीं
हमे ही मिटना पड़ता है

शहीद होने से दो क्षण पहले,
लाचार ही तड़पना पड़ता है
उन खुली आँखों के खोंफ को
तिरंगे से ढकना पड़ता है

निकलते नहीं बातों से नतीजे,
ये खून यूं रोज़ निकलता है
मुआवजों के धिन्धोरे रुकते नहीं,
साँसों को रुकना पड़ता है ,

फिरंगियों के इस चक्रव्यूह में
हमे अभिमन्यु बनना पड़ता है
तुम गिनती करके थकते नहीं,
हमे थक के मरना पड़ता है

जान देने या जान लेने के अलावा
कोई रस्ता नहीं निकलता है
इंसानियत की परछाई देखी अगर
तो गद्दार का दर्ज़ा मिलता है

कभी किसी पत्नी, कभी किसी बहन
यूं हर निर्दोष को रोना पड़ता है
भारत माता के नाम पर
खुद का नाम लुटाना पड़ता है

जब सरहद पे छिड़ती है जंग
हमे हाथों से लड़ना पड़ता है
फासले तो अब ये मिटते नहीं
हमे ही मिटना पड़ता है